अर्ह अष्टांगयोग-शतकम्

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मुनिवर प्रणम्यसागर जी महाराज द्वारा विरचित ध्यान योग विषयक अष्टांगयोग शतक उनके द्वारा प्रणीत शतक परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण सर्वोदयी जनकल्याणी कृति है। ध्यान योग शब्द ध्यान और योग दो शब्दों के मेल से निष्पन्न है। इस प्रकार ध्यान योग का अर्थ हुआ एकाग्रता का सम्बन्ध या एकाग्रता की निष्पन्नता । मनुष्य जीवन की सार्थकता उसके स्व-अस्तित्व को पाने में है। अहं अष्टांगयोग में लिखा है ध्यान ही योग का साधन है जिससे चित्त आत्मा से जुड़ जाता है। अर्हं अष्टांगयोग एक लुप्त पद्धति का पुनरुत्थान है। 

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अर्हं योग प्रणेता प्राकृत मर्मज्ञ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी मुनि श्री १०८ प्रणम्य सागर रचित साहित्य को आप यहाँ से प्राप्त करें